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गाव॑श्चिद्घा समन्यवः सजा॒त्ये॑न मरुत॒: सब॑न्धवः । रि॒ह॒ते क॒कुभो॑ मि॒थः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

gāvaś cid ghā samanyavaḥ sajātyena marutaḥ sabandhavaḥ | rihate kakubho mithaḥ ||

पद पाठ

गावः॑ । चि॒त् । घ॒ । स॒ऽम॒न्य॒वः॒ । स॒ऽजा॒त्ये॑न । म॒रु॒तः॒ । सऽब॑न्धवः । रि॒ह॒ते । क॒कुभः॑ । मि॒थः ॥ ८.२०.२१

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:20» मन्त्र:21 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:40» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:21


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (समन्यवः) हे समानतेजस्वी अथवा समान क्रोधवाले (मरुतः) दुष्टमारक शिष्टरक्षक सैनिकजनों ! आप देखें। आप लोगों की रक्षा के कारण (सजात्येन) समान जाति से (सबन्धवः) समान बन्धुत्व को प्राप्त ये (गावः+चित्+ध) यशोगायिका प्रजाएँ (ककुभः) निज-२ स्थान में (मिथः) परस्पर (रिहते) प्रेम कर रहे हैं अथवा गौ, मेष आदि पशु भी आनन्द कर रहे हैं, इत्यादि अर्थ भी अनुसन्धेय हैं ॥२१॥
भावार्थभाषाः - प्रजाजन रक्षा के कारण परम सुखी और प्रेमी हो रहे हैं अथवा पशुजाति भी परस्पर प्रेम कर रही है ॥२१॥
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आर्यमुनि

अब सर्वोपकारिणी होने से गोरक्षा करना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (समन्यवः, मरुतः) हे विरोधियों पर क्रोध करनेवाले योद्धाओ ! (गावः, चित्) आपसे रक्षित गौएँ (सजात्येन) आप ही के सदृश बलप्रदान करनेवाली होने से (सबन्धवः) आपके सदृश मित्रवाली होकर (मिथः) भक्ष्य पर्याप्त होने के कारण परस्पर मिलकर (ककुभः) सब दिशाओं को व्याप्त करके (रिहते) स्वच्छन्द स्व-स्व भक्ष्य का आस्वादन करती हैं ॥२१॥
भावार्थभाषाः - हे वीर योद्धाओ ! आपसे सुरक्षित हुई गौएँ सब दिशाओं में भक्षण करती हुई स्वच्छन्द होकर विचरती हैं। आप सदैव इनकी रक्षा करते हुए इनको हृष्ट-पुष्ट करें, ताकि इनके दुग्ध तथा घृतादि पदार्थों का सेवन करके प्रजाजन शारीरक तथा आत्मिकोन्नति करते हुए अपने हितकारक कार्यों को विधिवत् करने में कुशल हों ॥२१॥ तात्पर्य्य यह है कि जिस देश में सर्वोपकारिणी गौ की रक्षा की जाती है, वह देश कृषि आदि से उन्नत होता, उस देश के निवासी सदैव हृष्ट-पुष्ट तथा उन्नतिशील होते और गो-पदार्थों से यज्ञादि कर्म करते हुए सदैव सुख अनुभव करते हैं ॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्त्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे समन्यवः=समानतेजस्काः समानक्रोधा वा। हे मरुतः=दुष्टमारकाः शिष्टरक्षकाः सैनिकाः। सजात्येन=समानजात्या। सबन्धवः=समानबन्धुकाः। इमाश्चिद्। गावः=यशोगायिकाः प्रजाः। ककुभः=स्वस्वप्रदेशान् आश्रित्य। मिथः=परस्परम्। रिहते=लिहन्ति। प्रीणयन्तीत्यर्थः ॥२१॥
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आर्यमुनि

अथ ते सर्वोपकारकत्वाद्गोरक्षां कुर्युरिति वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (समन्यवः, मरुतः) हे शत्रुषु सक्रोधा वीराः ! (गावः, चित्) त्वया रक्षिताः गावः (सजात्येन) बलप्रदत्वधर्मेण त्वत्सादृश्येन (सबन्धवः) त्वत्समानबन्धवः (मिथः) परस्परं मिलिताः (ककुभः) सर्वदिशाः व्याप्य (रिहते) स्वच्छन्दतृणादीन्यास्वादयन्ति ॥२१॥